छोटी-
छोटी सी
दुकान। दूकान के नीचे रखे सामान में दुनियाभर के रंग का नजर और छटा। नीले, लाल पीले, गुलाबी और
नारंगी रिबन, तरह-तरह की चमकीली चूड़ियाँ, बिंदी और हेयर पिन्स, बड़े-बड़े फूलों की छापों वाली
फ्रॉक्स, साड़ियाँ,
नकली तथा असली गहने,
इनके साथ ही सजी
गुड़ की ढेलियाँ, अनाज और मसालों के ढेर, मेहँदी के ठपके और थोड़ी दूर पर कड़ाही से उतरते समोसे,
कचौडी तथा जलेबियाँ।
इन सबके बीच घूमते गमछे से बनी लंबी पगड़ियाँ पहने पुरुष और लंबा या छोटा घूँघट
निकाले बच्चों को गोदी में टाँगे हुए औरतें।
ये दृश्य था गाँव के सिकंदरा बाजार का। ग्रामीणों के लिए बाजार किसी त्योहार
की तरह ही हुआ करता है। फसल बेचने या मजदूरी मिलने पर इकट्ठे हुए पैसों से बाजार
कर आने का चाव विदेश की सैर की तरह होता है। कोलाहल, उड़ती धूल और बिकती सामग्री तक सब
कुछ ठेठ "गाँव" का। अब... पिछले कुछ ही सालों में गाँव का बाजार ऐसा
नहीं रह गया है।
छोटे पतरों से मिलकर बनी गुमटी हो या छोटी-मोटी दुकान, अब सिकंदरा बाजार एक
दूसरे रंग में रंगा मिलता है। अब यहां बालों को चमकाने वाले शैम्पू से लेकर गुटखे
और ब्यूटी क्रीम के भी पाउच मिलते हैं। एक-आध मल्टीनेशनल और ढेर सारे लोकल लेबल से
सजी "मिनरल वॉटर" की बोतलें मिल जाती है, बड़े फूल के छापों वाली फ्रॉक या
धोती अब यहाँ भी कोई नहीं पहनता| युवतियों और किशोरियों को अगर जींस, टी-शर्ट और कैप्री के
बारे में मालूम है तो महिलाएँ भी फलाँ धारावाहिक की फलाँ बहू द्वारा पहनी जाने
वाली डिजाइन की साड़ी की माँग दुकानदार के सामने रख देती हैं। पुरुष अगर बीड़ी की
जगह ब्रांडेड सिगरेट सुलगाने लगे हैं तो युवक भी ब्रांडेड गॉगल्स तथा जींस-शर्ट का
पहनावा अपना रहे हैं।
अब किसी दुकान पर किसान खैनी खरीदते नहीं, मोबाइल रिचार्ज करवाते नजर आएँ
तो अचरज नहीं है और इन सबके लिए उन्हें शहर का रुख करने की भी जरूरत नहीं है। यह
सब गाँव में भी आसानी से उपलब्ध है। मॉल कल्चर के चलते अगर आप अपने आपके शहरी होने
का ठसका पालते हैं और गाँव के लोगों को इस मामले में अज्ञानी समझते हैं तो एक बार
फिर आपके गाँव की विजिट करने के दिन आ गए हैं।
टीवी, इंटरनेट जैसे संचार साधनों तथा मार्केटिंग के मौजूदा तंत्र के चलते अब सिकंदरा
बाजार भी हाईटेक हो चले हैं। तेजी से बढ़ती आय, बलदती जीवनशैली और संभावनाओं से
भरा भविष्य। ये कुछ वजहें हैं जिन्होंने ग्रामीण भारत का शॉपिंग कल्चर बदलकर रख
दिया है। वो दिन गए जब गांवों में महंगे ब्रांडेड उत्पादों को कोई पूछने वाला नहीं
था और टिकाऊ उपभोक्ता चीजों की वहां अक्सर नकल बिका करती थी।
आंकड़ों के आईने से अगर देखें तो इस समय भारत के समूचे खुदरा बाजार में गांवों
की खरीदी का हिस्सा 55 फीसदी है।
एक जमाने में सिकंदरा बाजार में बिकने वाले सामान के लिए न तो उत्पादक ही सजग
रहते थे और न ही उन्हें बेचने वाले विक्रेता, क्योंकि माना जाता था कि ग्रामीण
उपभोक्ताओं को गुणवत्ता की कोई समझ नहीं होती। लेकिन हाल के कुछ सालों में यह
देखने में आया है कि सिकंदरा बाजार में शहरों की ही तरह वही ब्रांड अपनी मजबूत जगह
बना रहे हैं जिनकी गुणवत्ता स्थापित है। पिछले पांच सालों में ग्रामीण बाजार के
विक्रेताओं के मुकाबले कहीं ज्यादा फायदा हुआ है, क्योंकि ग्रामीण उपभोक्ताओं के
पास आज शहरी उपभोक्ताओं के मुकाबले खर्चने के लिए अगर ज्यादा धन नहीं है तो कम भी
नहीं है।
आज सिकंदरा बाजार में शहरों की ही तरह डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों, बाल काले करने के लिए
हेयर डाइयों, गोरा बनाने वाली क्रीमों का आकर्षण है, जैसा शहरी उपभोक्ताओं के बीच है।
फिर हाल के सालों में गांवों में समृद्धि भी बढ़ी है। सड़क नेटवर्क ने गांवों
को उद्यमिता की नई बहार दी है। अब छोटे से छोटे गांव का उत्पादक भी अपना कृषि
उत्पाद या कुटीर उत्पाद सिकंदरा मंडी तक खुद बेचकर आते है। इससे उसकी आय में इजाफा
हुआ है।
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